लेखक: सुगाता बोस
समीक्षा: ग़ुलाम आरिफ़ ख़ान
“मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा”—ये जोशीले शब्द, जो दृढ़ विश्वास से भरे हुए हैं, सुभाष चंद्र बोस की अडिग भावना को दर्शाते हैं। स्वतंत्रता संग्राम के इस महानायक के ये शब्द भारत के इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गए हैं। बोस ने अटल सिद्धांतों और कर्तव्यपरायणता के साथ “नेताजी” का खिताब हासिल किया। उनकी जीवन कहानी प्रेरणादायक होने के साथ-साथ विवादों और रहस्यों से भरी हुई है।
सुगाता बोस द्वारा लिखित जीवनी His Majesty’s Opponent: Subhas Chandra Bose and India’s Struggle Against Empire नेताजी के बहुआयामी जीवन पर प्रकाश डालती है। यह पुस्तक उनके राजनीतिक दृष्टिकोण, सामाजिक संबंधों, वैचारिक संघर्षों और व्यक्तिगत संबंधों की गहराई से पड़ताल करती है।
सुगाता बोस, जो एक प्रसिद्ध इतिहासकार और हार्वर्ड विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर हैं, ने इस जीवनी को गहन शोध और अपने महान-परदादा नेताजी के प्रति गहरी समझ के साथ प्रस्तुत किया है।
अविरत संघर्ष का जीवन
सुभाष चंद्र बोस का जन्म 1897 में कटक में हुआ था। उनके अदम्य साहस ने पहली बार कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में खुद को उजागर किया, जहां उन्होंने एक ब्रिटिश प्रोफेसर के अपमानजनक शब्दों के खिलाफ आवाज उठाई और निष्कासित हो गए। इसके बाद उन्होंने स्कॉटिश चर्च कॉलेज से स्नातक किया और इंग्लैंड में प्रतिष्ठित इंडियन सिविल सर्विस परीक्षा पास की। लेकिन उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी स्वीकारने के बजाय स्वतंत्रता संग्राम के कठिन रास्ते को चुना।
1921 में कांग्रेस में शामिल होकर, उन्होंने युवा कांग्रेस का नेतृत्व किया और 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1938 में, वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए और आर्थिक आत्मनिर्भरता का प्रचार किया। लेकिन वैचारिक मतभेदों के कारण उन्होंने 1939 में कांग्रेस छोड़ दी और फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, उन्होंने जापान और जर्मनी से समर्थन जुटाने के लिए यूरोप और एशिया की यात्रा की। 1943 में, सिंगापुर में उन्होंने आज़ाद हिंद फौज (आईएनए) की कमान संभाली और एक अस्थायी सरकार की घोषणा की।
मुस्लिम समुदाय और आज़ादी की लड़ाई
सुगाता बोस की पुस्तक यह दिखाती है कि नेताजी ने हमेशा धर्म और जाति से परे एकता का समर्थन किया। उनके सचिव मेहबूब अहमद ने कहा था, “मैंने गांधी और नेहरू दोनों के साथ काम किया है, लेकिन केवल नेताजी के लिए मैं अपनी जान देने को तैयार था।”
आईएनए में मुस्लिमों की भागीदारी अनुपात से अधिक थी। इसने यह दिखाया कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ने सभी धर्मों को एकजुट किया। मुस्लिम महिलाएं भी रानी झांसी रेजिमेंट में शामिल हुईं।
एकता और बलिदान का प्रतीक
आजाद हिंद फौज का प्रतीक टीपू सुल्तान का शेर था। इसका आदर्श वाक्य “इत्तेहाद, एतमाद, और क़ुर्बानी” था। नेताजी का दृष्टिकोण सभी समुदायों को एक समान मानने का था।
विवाद और चुनौतियां
यह पुस्तक नेताजी के जटिल और विवादास्पद विषयों को गहराई से समझाती है। उनके कांग्रेस से अलग होने को एक सिद्धांतवादी वैचारिक मतभेद बताया गया है, न कि अचानक लिया गया फैसला।
1939 में नेताजी ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव जीता था, लेकिन गांधीजी के समर्थक गुट के विरोध के कारण उन्होंने पार्टी छोड़ दी। फिर भी, नेताजी ने गांधी, नेहरू और आज़ाद के नाम पर आजाद हिंद फौज की तीन बटालियन का नाम रखा।
नेताजी ने महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत का सम्मान किया, लेकिन उनका मानना था कि स्वतंत्रता पाने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाना जरूरी है।
आर्थिक और वैश्विक दृष्टिकोण
नेताजी ने केवल भारत की स्वतंत्रता के लिए ही नहीं, बल्कि एशिया और अन्य उपनिवेशित देशों के लिए समानता और स्वतंत्रता की वकालत की। उनका मानना था कि स्वतंत्र भारत सभी शोषित लोगों के लिए न्याय और समानता का आदर्श प्रस्तुत करेगा।
निष्कर्ष
यह पुस्तक न केवल नेताजी के बलिदानों को दर्शाती है, बल्कि उनके जीवन की अनगिनत कहानियों और आदर्शों को भी उजागर करती है। युवा पीढ़ी के लिए यह केवल एक इतिहास का पाठ नहीं, बल्कि एक मार्गदर्शक है जो उन्हें एकता और मानवता की ओर प्रेरित करता है।
ग़ुलाम आरिफ़ ख़ान मुंबई के एक वक्ता और समाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मामलों के टिप्पणीकार हैं। उनसे संपर्क: [email protected] / +91-8422971000
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